आजकल बदलतार बदलता वतवरण व बदलते आहार-विहार परिचय के कारण इम्युनिटी लेवल कम होने से अलग-अलग तरह की
त्वचा की एलर्जी - कुष्ठ रोग/ल्यूकोडर्मा/विटिलिगो/एरीसिपेलस/उर्टिकेरिया आदि देखने को मिलती है।
1. कुष्ठ रोग (Leprosy)-
जो रोग मानव शरीर के त्वचा आदि धातुओं का नाश करके अंग प्रत्यंग को गलाकर विकृत कर दे उसे कुष्ठ कहते है |
कुष्ठ रोग यह एक संक्रामक रोग है और इसका वाहक माइक्रोबैक्टीरियम लेप्रो नामक जीवाणु है। इस रोग के वाहक जीवाणु, त्वचा या सांस के द्वारा शरीर में प्रवेश होते हैं और इन जीवाणुओं द्वारा नसों एवं त्वचा को नुकसान पहुंचायी जाती है। कुछ समय के बाद त्वचा पर सूखापन लिए हुए लाल या सफेद चकते उभर आते हैं। कुष्ठ रोग के बढने के साथ-साथ उंगलियों में विकलांगता भी आने लगती हैं और दर्द रहित घावों के कारण हाथों तथा पैरों की उगलियां गल जाती हैं।
आयुर्वेदानुसार इसके मुख्यतः कारण विरुद्ध आहार का सेवन, अत्यधिक निद्रा, भोजन, धुप, व्यायाम, मल-मूत्र का वेग धारण, पंचकर्म व्यापति, गुरु ब्राह्मण का अपचार, पापो का आचरण, वमन को रोकना, ब्रह्महत्या, स्त्रीहत्या, सज्जनहत्या, रक्तज कृमि, वंशानुगत आदि माने गए है |
निदान सेवन से वातादि दोषो का प्रकोप होकर तिरकगत सिराओ में गमन करके त्वचा-रक्त-मांस-लसिका का दूषित व शिथिल होना तथा दोष दूसया का त्वचा में स्थान संश्रय होकर मंडलोत्पत्ति व विवरणयता होकर कुष्ठ रोग की उत्पति होती है |
Acc. to Modern- Leprosy is a chronic, progressive bacterial infection caused by the bacterium Mycobacterium leprae. It primarily affects the nerves of the extremities, the skin, the lining of the nose, and the upper respiratory tract. Leprosy is also known as Hansen’s disease.
Leprosy produces skin ulcers, nerve damage, and muscle weakness. If it isn’t treated, it can cause severe disfigurement and significant disability.
भेद –
महाकुष्ठ-
१. कपाल कुष्ठ (Non Lepromatous Leprosy)- काले अरुण रंग, रुक्ष, विषम, दाह, कण्डु ,कपाल समान
२. ओदुम्बर कुष्ठ (Lepromatous Leprosy)- दाह, कण्डु, लालिमा, रोम कपिल वर्ण , गूलर फल समान
३. मंडल कुष्ठ (Non Lepromatous Leprosy-Psoriasis)- स्वेत रक्त वर्ण घन, स्निग्घ ,मंडल समान
४. ऋस्यजिवहा कुष्ठ (Non Lepromatous Leprosy)- किनारे रक्त अंदर स्याव
५. पुण्डरीक कुष्ठ (Lepromatous Leprosy)- स्वेत रक्त कमल समान , लालिमा युक्त
६. सिध्म कुष्ठ (Pityriasis Leprosy) – स्वेत, ताम्रा ,धूलि समान चूर्ण
७. काकनक कुष्ठ (Lepromatous Leprosy) – गूंजा समान मध्य लाल ,बाकि लाल , तीव्र वेदना
छुद्र कुष्ठ-
१. एककुष्ठ (Psoriasis)- स्वेद नहीं आवे , मछली समान त्वचा, सम्पूर्ण शरीर पर फैला हो
२. चर्माख्या (Xeroderma)- हाथी के चमड़े कइ समान त्वचा
३. कीटीभ कुष्ठ (Lichen Planus or Psoriasis) – स्याववर्ण व खुरदरे स्पर्श वाला
४. विपादिका कुष्ठ (Phagaded)- तीव्र वेदना, हाथ -पैर फटना
५. अलसक कुष्ठ – कण्डु व रक्त वर्ण फोड़ो युक्त
६. दद्रु मंडल (Ring Worm)- कण्डु मंडल युक्त लालिमा उन्नत
७. चर्मदल (Impetigo)- रक्त वर्ण , कण्डु , त्वचा फटे
८. पामा (Scabies)- स्वेत अरुण स्याव, तीव्र कण्डु
९. विस्फोट (Exenthymeta)- स्वेत अरुण वर्ण पीड़का , पतली त्वचा युक्त
९०. सतारु (Erythema Induratum) – रक्त स्याव पीड़ा युक्त
११ . विचर्चिका (Eczema) – स्याव कण्डु स्त्राव युक्त
Ext. acc सुश्रुत –
१. अरुण कुष्ठ – अरुण वर्ण , तनुत्वक , पीड़ायुक्त
२. स्थूलरुस्क कुष्ठ – संधि स्थानों में स्थूल पीड़का
३. महाकुस्थ कुष्ठ – त्वक संकोच , स्फुटन ,सुन्नता, अंगसाद
४. विसर्प कुष्ठ – त्वचा रक्त मांस को दुसित करके शीघ्र फैलता है, मूर्छा, विदाह , बेचैनी
५. परिसर्प कुष्ठ – शरीर पर धीरे फैलने वाला ,स्रावयुक्त पीड़का
६. रकसा कुष्ठ – कण्डूयुक्त, स्रावयुक्त पीड़का
– There are three systems for classifying leprosy in modern.
– Tuberculoid leprosy
– Lepromatous leprosy
– Borderline leprosy
लक्षण – रुक्षता ,दाह, श्वेतता, लालिमा, शीतलता, वेदना, परिस्त्राव, कण्डु, शूल, पाक, स्थिरता, विस्र गंध, क्लेद, गौरव, अंग पतन, स्निग्धता, खरता, कर्ण-नासा भंग, कृमि भक्षण, स्पर्शहानि, पूय उत्पति
– त्वचा पर उभार
– हाथों, बांहों, पैरो और पैर के तलवों में सुन्नता (Numbness) का अनुभव होना
– शरीर पर ऐसे घाव होना जिसे छूने पर दर्द का अनुभव न हो
– शरीर के घाव का कई हफ्तों और महीनों तक ठीक न होना।
– पैरों के तलवों में अल्सर होना
– त्वचा मोटी, कठोर और शुष्क होना
– स्नायु (Muscle) कमजोर होना और पक्षाघात होना।
– आंख में परेशानी और उसके कारण अंधेपन की समस्या होना
बैक्टीरिया के संपर्क में आने और शरीर में इसके लक्षण दिखाई देने के बीच के समय को रोगोद्भवन काल (incubation period) कहते हैं। कुष्ठ रोग का इंकुबेशन पीरिएड बहुत लंबा होता है और डॉक्टर के लिए यह निर्धारित करना बहुत मुश्किल हो जाता है कि कुष्ठ रोगी कब और किन परिस्थितियों में बीमार पड़ेगा।
The main symptoms of leprosy are muscle weakness, numbness in arms, feet, legs, and hands, and skin lesions.
The skin lesions result in decreased sensation to touch, temperature, or pain. They don’t heal, even after several weeks. They’re lighter than your normal skin tone or they may be reddened from inflammation.
चिकित्सा –
१. निदान परिवर्जन
२. अन्तःपरिमार्जन
संशोधन – वमन, विरेचन, रक्तमोक्षण, बस्ति, नस्य
संसमन – औषध प्रयोग
३. बहि:परिमार्जन- तेल, लेप का प्रयोग
NOTE – आयुर्वेदिक उपचार के लिए या तो हमारे सेंटर पर संपर्क कर सकते है या फिर निचे दिए लिंक से ऑनलाइन आर्डर कर सकते है |
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2. श्वित्र- किलास (Vitiligo- Leucoderma) –
शरीर के किसी अंग की त्वचा का वर्ण स्वेत होकर अप्रिय हो जाता है |
निदान सेवन से त्रिदोष प्रकोप होकर आमोत्पत्ति और तिर्यग सिरा गमन होकर रक्तवह स्त्रोतों गमन होकर दोष दूसये सम्मूर्छना होकर त्वक वैवर्ण्ये से श्वित्र रोग की उत्पति होती है |
Vitiligo is a long-term problem in which growing patches of skin lose their color. It can affect people of any age, gender, or ethnic group.
The patches appear when melanocytes within the skin die off. Melanocytes are the cells responsible for producing the skin pigment, melanin, which gives skin its color and protects it from the sun’s UV rays.
Vitiligo can affect people of any age, gender, or ethnicity.
The exact cause is unknown, but it may be due to an autoimmune disorder – in which the immune system becomes overactive and destroys the melanocytes or genetic oxidative stress imbalance, stressful event, harm to the skin due to a critical sunburn or cut, exposure to some chemicals, neural cause
heredity, as it may run in families or viruses.
– Vitiligo is not contagious.
– पूर्वरूप, लक्षण, कुष्ठ रोग के सामान
चिकित्सा –
१. निदान परिवर्जन
२. अन्तःपरिमार्जन
संशोधन – वमन, विरेचन, रक्तमोक्षण, बस्ति, नस्य
संसमन – औषध प्रयोग
३. बहि:परिमार्जन- तेल, लेप का प्रयोग
४. शस्त्र प्रणिधान
– देवव्यपाश्रये , सत्ववजय चिकित्सा प्रयोग
NOTE – आयुर्वेदिक उपचार के लिए या तो हमारे सेंटर पर संपर्क कर सकते है या फिर निचे दिए लिंक से ऑनलाइन आर्डर कर सकते है |
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3.विसर्प (Erysipelas)-
यह एक तरह का फैलनेवाला नया रोग है। जब किसी कारण से कोई अंग कट जाता है या छिल जाता है तो उस अंग स्ट्रेप्टोकोकस पायोजेन नामक जीवाणुशरीर में घुसकर त्वचा या श्लेष्मिक झिल्ली में सूजन व जलन पैदा कर देता है। इस तरह के जीवाणु से उत्पन्न रोग को विसर्प रोग कहते है। धातुगत कमजोरी रहना या स्वास्थ्य के नियमो का ठीक-ठीक से न पालन करना आदि इस रोग का मुख्य कारण है।
Diagnosis of Visarpa in clinical practice is very controversial. Visarpa is extremely viral and spreads in a similar to that of cobra venom. If not attended properly readily inflict death. Hence Visarpa is known as an extreme form of atyayika rog.
Visarpa is an infectious disease caused by the Nita group (Harpe’s group) of viruses this classification is made according to afflicting chemical, physical, and serological criteria. Herpes simplex 1, Herpes simplex 2, Herpes zoster, Varicella zoster, Varicella, Cytomogalo virus, and secondary infection to Streptococcus pyogens (Hemolytic streptococci of group A) 80 types of Streptococcus pyogens are have been recognized so far. Parisarpana is due to these infections having a lot of similarities in the clinical condition of Visarpa.
Nita group of viruses with Visarpa: Visarpa is an inflammatory disease some types of Visarpa are due to the Nita group of viruses classified made according to affect the chemical, physical and serological criteria.
Herpes simplex –
1 · Herpes simplex
2 · Herpes zoster,
3 · Varicella zoster
– Varicella zoster, herpes simplex – 1 Herpes simplex – 2 are concerned with the skin eruption system.
– Cytomegalovirus and Epstein-Barr virus are concerned with a hematopoietic disorder.
निदान –
निज हेतु –
– लवण, कटु पदार्थों का सेवन का अति सेवन,
– दधि, सुक्त, सौवीर, विकृत मदिरा अति सेवन,
– रागसाडव अति सेवन,
– हरीतकसाक व विदाही अन्न का अति सेवन
– कुर्चिका किलाट का अतिसेवन
आगन्तुज हेतु –
– शस्त्रादि से क्षत
– आतप अतिसेवन
– विषैली वायु सेवन
निदान सेवन से त्रिदोष प्रकोप होकर त्वचा मांस रक्त लसिका में दुस्टि होकर बाह्य, अन्तः ,उभये आश्रित विसर्प की उत्पति होती है |
प्रकार – वातज, पित्तज, कफज, सन्निपातज, आग्नये, ग्रंथि, कर्दम
चिकित्सा –
शोधन चिकित्सा
वमनकर्म -पटोल, निम्ब, पिप्पली, मदनफल से
विरेचन कर्म – त्रिफला क़्वाथ व निशोथ चूर्ण , त्रायमाण घृत, आमलकी स्वरस व घृत
रक्तमोक्ष – शमन चिकित्सा – औषध
आरोग्य वर्धिनी वटी 1 Tab BD
गंधक रसायन 1 Tab BD
पंचतिक्त घृता गुग्गुलु 1 Tab BD
खदिरारिष्ट 20ml BD
अविपत्तिकर चूर्ण 5gm + रसा
माणिक्य 100mg + गिलोय सत्व 500mg = BD with मधु for लेहन
शतधौत घृत प्रयोग |
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4. शीतपित, उदर्द, कोठ रोग (Urticaria- Allergic Reactions)
In Ayurveda, all skin diseases are explained under ‘kushtha’ (skin diseases). Besides this, some allergic conditions which are not explained under kushtha are mentioned separately such as sheetapitta, udarda, and kotha. Various forms of urticaria and angioedema, having similar symptomatology can be correlated as sheetapitta, udarda, and kotha.
शीतपित्त –
शीतपित्त या पित्ती (Urticaria) त्वचा में होने वाले एक प्रकार के चकत्ते होते हैं। इस रोग के कारण त्वचा पर सुर्ख लाल रंग के उभरे हुए दाने हो जाते हैं जिनमे लगातार खुजली होती रहती है। ये अक्सर एलर्जी के कारण होते है हालाँकि कई मामलो में बिना एलर्जी के भी शीत पित्ति हो सकती है। इसके चलते शरीर में हमेशा जलने एवं चुभने की अनुभूति होते रहती है।
Urticaria (hives or nettle rash) is characterized by a red, raised, itchy rash resulting from vasodilation increased blood flow and increased vascular permeability.
शीतपित्त आम तौर पर पाचन तंत्र की गड़बड़ी और खून में गर्मी बढ़ जाने के कारण होता है। वातावरण में उपस्थित कई तरह के कारक इसमें शामिल हैं। इसके सामान्य लक्षण त्वचा पर चकते , कण्डु , शूल, छर्दि, ज्वर, दाह आदि है |
कोथ –
जब किसी भी कारण से शरीर के किसी भाग अथवा बड़े ऊतक-समूह की मृत्यु हो जाती है तब उस व्याधि को कोथ (Gangrene or Mortification) कहते हैं। कोथ जानलेवा स्थिति का संकेत है।
इस रोग में ऊतक का नाश अधिक मात्रा में हो जाता है। धमनी के रोग, धमनी पर दबाव या उसकी क्षति, विषैली ओषधियों, जैसे अरगट अथवा कारबोलिक अम्ल का प्रभाव, बिछौने के व्रण, जलना, धूल से दूषित व्रण, प्रदाह, संक्रमण, कीटाणु, तंत्रिकाओं का नाश तथा मधुमेह आदि कोथ के कारण हो सकते हैं।
कोथ मुख्यत: दो प्रकार का होता है: शुष्क और आर्द्र
a. शुष्क कोथ जिस भाग में होता है, वहाँ रक्तप्रवाह शनै: शनै: कम होकर पहले ऊतक का रंग मोम की तरह श्वेत तथा ठंढा हो जाता है, तदुपरांत राख के रंग का अथवा काला हो जाता है। यदि ऊर्ध्व या अध: शाखा में कोथ होता है तो वह भाग पतला पड़कर सूख जाता है और कड़ा होकर निर्जीव हो जाता है। इसको अंग्रेजी मे मॉर्टिफ़िकेशन कहते हैं।
b. आर्द्र कोथ जिस भाग में होता है वहाँ रूधिर का संचार एकाएक कट जाता है, परंतु उस स्थान में रक्त भरा होता है और द्रव भरे छाले दिखाई देते हैं। वहाँ के सब ऊतक मृत हो जाते हैं। मृत भाग सड़े हुए खुरंड (Slough) के रूप में पृथक् हो जाता है और उसके नीचे लाल रंग का व्रण निकल आता है।
इसके मुख्य कारण – आघात,रक्तवाहिनियो की व्यधियाँ (burger’s disease , raynaud’s disease) सिराओं की विकृति, मधुमेह, संक्रमण etc.
इसके सामान्य लक्षण उत्सेध युक्त सोथ , रक्त वर्ण चकते आदि है |
निदान सेवन से कफ वायु का प्रकोप होकर, पित के संयोग से त्वचा रक्तादि धातुओं में प्रसर होकर सोथ व मंडलोत्पत्ति होती है जिससे शीतपित्त कोठ की उत्पति होती है |
चिकित्सा – संशोधन- अभ्यंग, स्वेदन, वमन, विरेचन, रक्तमोक्षण
संशमन – औषध
NOTE – आयुर्वेदिक उपचार के लिए या तो हमारे सेंटर पर संपर्क कर सकते है या फिर निचे दिए लिंक से ऑनलाइन आर्डर कर सकते है |
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